KABIR DAS KE DOHE: SANT KABIR DAS

Last Updated on July 1, 2021 by Skillslelo

kabir ke dohe

कबीर दास भारत के प्रसिद्ध कवियों में से एक है। Kabir Ke Dohe काफी प्रसिद्ध हैं। हमने कुछ बेहतरीन Sant Kabir Ke Dohe आपके लिए यहां इकट्ठे किये हैं।

आइए पहले कबीरदास के जीवन के बारे में कुछ जान लेते हैं।

हिंदी साहित्य के इतिहास में कबीर दास (Kabir Das) को भक्ति काल के ज्ञानाश्रई शाखा के संत (Sant) कवि के रूप में जाना जाता है। कबीर निर्गुण उपासक थे और एक ईश्वर में विश्वास रखते थे।

उनका मानना था कि हिंदू-मुसलमान, ब्राह्मण, शुद्र, धनी-निर्धन सबका ईश्वर एक है।

जब सभी को बनाने वाले ईश्वर ने भेदभाव नहीं किया नहीं किया तो मनुष्य-मनुष्य के बीच ऊंची-नीची,धनी-निर्धन, छुआ-छूत का भेदभाव क्यों।

उन्होंने मानव को सही मार्ग पर चलने के लिए समन्वय और समानता प्रेरणा दी और समाज में फैली बुराइयों, अंधविश्वासों और आडंबर का कड़ा विरोध किया और आदर्श समाज की स्थापना पर बल दिया।

कबीर दास पढ़े-लिखे नहीं थे, इसलिए उनका ज्ञान पुस्तकीय या शास्त्रीय नहीं था।

कबीर (Kabir) स्वयं इसको एक दोहे (Dohe)  द्वारा स्वीकार किया है।

मसि कागद छूऔं नहीं, कलम गहौं नहि हाथ

अपने जीवन में उन्होंने जो अनुभव किया जो साधना से पाया वही उनका अपना ज्ञान था जो भी ज्ञानी विद्वान उनके संपर्क में आते उनसे वे कहा करते थे:

तू कहता कागद की लेखी, मैं कहता आँखिन की देखी।

सैकड़ों पुस्तकें पढ़ने के बजाय वे प्रेम का ढाई अक्षर पढ़कर स्वयं को धन्य समझते थे जो Kabir के इस दोहे (Dohe) में प्रकट होता है।

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।

pothi padhi padhi jag mua

कबीर के  जन्म और  माता-पिता के विषय में निश्चित रूप से कुछ कहना संभव नहीं है।

फिर भी माना जाता है कि उनका जन्म 1398 ई0 में (विक्रम संवत 1455)  ज्येष्ठ सुदी पूर्णिमा के दिन सोमवार को काशी के लहरतारा तालाब के निकट हुआ था।

कबीरदास के जन्म के विषय में यह दोहा (Doha) प्रचलित है।

“चौदह सौ पचपन साल गए, चंद्रवार एक ठाठ गए |
ज्येष्ठ मुदी बरसायत को, पूरणमासी प्रगट भये ||
धन गरजै दामिनी दमके, बूंदें वरसे झर लाग गए |
लहर तारा तालाब में कमल खिले, तहं कबीर भानु प्रगत भये||”

कबीर दास एक जुलाहा दंपत्ति को लहरतारा नामक तालाब के किनारे पड़े हुए मिले थे जिनका नाम नीरू और नीमा था।

नीरू और नीमा ने कबीर का पालन पोषण किया।

इनका विवाह लोई नाम की कन्या से हुआ जिससे एक पुत्र कमाल तथा एक पुत्री कमाली का जन्म हुआ।

कबीर दास के गुरु का नाम संत रामानंद था जिनसे कबीर ने निर्गुण भक्ति की दीक्षा ली जिनके सम्बन्ध में उन्होंने कहा है –

“काशी में हम प्रगत भये है, रामानन्द चिताय |”

कबीर की दृष्टि में गुरु का स्थान भगवान से भी बढ़कर है।

उन्होंने अपने एक दोहे में गुरु की महिमा को बखान किया है।

गुरु गोविंद दोउ खड़े, काके लागूं पाँय ।
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो मिलाय॥

उन्होंने एक जगह अपने  दोहो में  गुरु को कुम्हार की संज्ञा दी है।

गुरू कुम्हार शिष कुंभ है, गढि़ गढि़ काढ़ै खोट।
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट।।

साधु संतों के साथ कबीर इधर उधर घूमने जाते रहते थे।

उनकी भाषा में अनेक स्थानों की बोलियां बोलियों के शब्द पाए जाते हैं कबीर अपने विचार और अनुभव को व्यक्त करने के लिए स्थानीय भाषा के शब्दों का प्रयोग करते थे।

कबीर की भाषा को कड़ी साधु कड़ी भी कहा जाता है।

कबीर ने स्वयं किसी ग्रन्थ की रचना नहीं की किन्तु उनके द्वारा गाये हुए पदों को उनके शिष्यों ने इकठ्ठा किया और पुस्तक का रूप दिया और नाम रखा बीजक।

इनके तीन भाग है – साखी, सबद, रमैनी ।

साधु-संतों की संगति उन्हें अच्छी लगती थी। यद्यपि कबीर की निंदा करने वाले लोग संख्या कम नहीं थी लेकिन कबीर निंदा करने वाले लोगों को अपना हितेषी समझते थे।

निंदक नियेरे राखिये, आँगन कुटी छावायें ।
बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुहाए ।

वाराणसी प्राचीन काल से ही जहां मोक्षदायिनी नगरी के रूप में जानी जाती थी तो मगहर को लोग इसलिए जानते थे कि  ये एक अपवित्र जगह है और यहां मरने से व्यक्ति अगले जन्म में गधा होता है या फिर नरक में जाता है।

इसलिए कबीर अपनी मृत्यु निकट जानकर काशी से मगहर चले गए और समाज में फैली हुई इस धारणा को तोड़ा।

1518 इसी में उनका निधन हो गया। कहा जाता है कि उनके शव को लेकर विवाद हुआ।

हिंदू अपनी प्रथा के अनुसार शव को जलाना चाहते थे और मुस्लिम शव को दफनाना चाहते थे।

शव से जब चादर हटाकर देखा गया तो शव के स्थान पर कुछ फूल मिले।

हिंदू-मुसलमान दोनों ने फूलों को बांट लिया और अपने विश्वास और आस्था के अनुसार उनका संस्कार किया

मगहर में अब कबीर की समाधि भी है और उनकी मज़ार भी।

Kabir के कुछ प्रसिद्ध दोहे (Dohe) निम्नलिखित हैं:

1. 

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय ।
जो मन देखा आपना, मुझ से बुरा न कोय ।

bura jo dekhan mai chala

भावार्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि जब मैं इस संसार में बुराई ढूंढने निकला तो मुझे कोई बुरा नहीं मिला। जब मैंने अपने अंदर झांककर देखा तो पाया की मुझसे बुरा कोई नहीं है।

2.

दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय ।
जो सुख में सुमिरन करे, तो दुःख काहे को होय ।

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि सभी लोग दुःख में परमात्मा का स्मरण करते हैं, लेकिन जब सुख आता है तो कोई भी परमात्मा का स्मरण नहीं करता है। यदि सुख में परमात्मा का स्मरण किया जाये तो जीवन में दुःख ही क्यों होगा।

3.

माटी कहे कुमार से, तू क्या रोंदे मोहे ।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रोंदुंगी तोहे ।

maati kahe kumhar se

कबीरदास जी कहते हैं कि मिट्टी कुम्हार से कहती है कि तुम मुझे क्या रौंदते हो, एक दिन ऐसा आएगा जब तुम भी इसी मिटटी में मिल जाओगे, तब मैं तुम्हे रौंदूंगी। भाव यह है कि समय हमेशा एक जैसा किसी का नहीं रहता है। किसी भी चीज का अभिमान नहीं करना चाहिए।

4.

चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोये ।
दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोए ।

चलती हुई चक्की (अनाज को पीसने वाले पत्थरों की दो गोलाकार आकृति) को देखकर कबीर रोने लगे। कबीर देखते हैं कि चक्की के इन दो भागों (दो पत्थरों) के बीच में आने वाला हर दाना कैसे बारीक पिस गया है और कोई भी दाना साबूत नहीं बचा है।

5.

काल करे सो आज कर, आज करे सो अब ।
पल में परलय होएगी, बहुरि करेगा कब ।

6.

जहाँ दया तहा धर्म है, जहाँ लोभ वहां पाप ।
जहाँ क्रोध तहा काल है, जहाँ क्षमा वहां आप ।

7.

जाती न पूछो साधू की, पूछ लीजिये ज्ञान ।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहने दो म्यान ।

कबीर दास जी कहते हैं कि सज्जन व्यक्ति से कभी भी उसकी जाति नहीं पूछनी चाहिए। वरन उसे कितना ज्ञान है यह देखना चाहिए। ठीक उसी प्रकार जैसे मूल्य तलवार का होता है म्यान का नहीं।

8.

तन को जोगी सब करे, मन को विरला कोय ।
सहजे सब विधि पाइए, जो मन जोगी होए ।

9.

साईं इतना दीजिये, जामे कुटुंब समाये ।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधू न भूखा जाए ।

कबीरदास जी कहते हैं कि हे परमात्मा मुझे बस इतना दीजिये जिससे कि मेरे परिवार का भरण पोषण हो सके। जिससे मैं अपना भी पेट भर सकूं और मेरे द्वार पर आया हुआ कोई भी साधु-संत कभी भूखा न जाये।

10.

आये है तो जायेंगे, राजा रंक फ़कीर ।
इक सिंहासन चढी चले, इक बंधे जंजीर ।

11.

ऊँचे कुल का जनमिया, करनी ऊँची न होय ।
सुवर्ण कलश सुरा भरा, साधू निंदा होय ।

कबीर दास जी कहते हैं कि व्यक्ति का ऊँचे कुल में जन्म लेने का क्या लाभ जो उसके कर्म ही अच्छे न हों। यदि स्वर्ण कलश में मदिरा भरी हो तो भी सज्जन उसकी निंदा ही करते हैं।

12.

लुट सके तो लुट ले, हरी नाम की लुट ।
अंत समय पछतायेगा, जब प्राण जायेगे छुट ।

13.

माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर ।
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ।

कविवर कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य की इच्छा, उसका ऐश्वर्य अर्थात धन सब कुछ नष्ट होता है यहां तक की शरीर भी नष्ट हो जाता है लेकिन फिर भी आशा और भोग की आस नहीं मरती।

14.

कबीरा जब हम पैदा हुए, जग हँसे हम रोये,
ऐसी करनी कर चलो, हम हँसे जग रोये

अर्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि जब हम पैदा हुए थे तब सब खुश थे और हम रो रहे थे। पर कुछ ऐसा काम ज़िन्दगी रहते करके जाओ कि जब हम मरें तो सब रोयें और हम हँसें।

15.

ऐसी वाणी बोलिये मन का आपा खोय।
औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होय।।

अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि अपने मुख से ऐसी वाणी का इस्तेमाल कीजिये जो दूसरों को शीतलता का अहसास कराये और जिससे स्वयं को भी शीतलता का अनुभव हो।

16.

कबीरा खड़ा बाजार में, मांगे सबकी खैर।
ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर।।

अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि हम इस संसार में सबका भला सोचें। किसी से यदि हमारी दोस्ती न हो तो किसी से दुश्मनी भी न हो।

17.

बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि,
हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि।

भावार्थ: यदि कोई सही तरीके से बोलना जानता है तो उसे पता है कि वाणी एक अमूल्य रत्न है। इसलिए वह ह्रदय के तराजू में तोलकर ही उसे मुंह से बाहर आने देता है।

18.

बडा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर
पंथी को छाया नही फल लागे अति दूर

bada hua to kya hua jaise ped khajoor

अर्थ : कबीरदास जी ने बहुत ही अनमोल शब्द कहे हैं कि यूँही बड़ा कद होने से कुछ नहीं होता क्यूंकि बड़ा तो खजूर का पेड़ भी हैं लेकिन उसकी छाया राहगीर को दो पल का सुकून नही दे सकती और उसके फल इतने दूर हैं कि उन तक आसानी से पहुंचा नहीं जा सकता.

इसलिए ऐसे बड़े होने का कोई फायदा नहीं, दिल से और कर्मो से जो बड़ा होता हैं वही सच्चा बड़प्पन कहलाता हैं .

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